
हरिपथ लोरमी– (विशेष खबर)ब्लाक के सुदूर वनाचंल के ग्राम लमनी में जहां स्व प्रोफेसर पीडी खेड़ा की प्रतिमा लगाई गई थी, उसे अज्ञात तत्वों ने क्षतिग्रस्त कर दिया है। इस बारे में प्रशासन के पास भी कोई जानकारी नहीं है। सबसे खास बात है कि सितंबर 2020 में लगी इस प्रतिमा का अनावरण आज तक नहीं किया गया है। कपड़े में ढंकी इस प्रतिमा का कवर कुछ दिन पहले अज्ञात लोगों ने निकाल दिया था और अब इसे क्षतिग्रस्त किया गया है।

ध्यान रहे कि लमनी में जहां पर प्रोफेसर खेड़ा का खूबसूरत आशियाना हुआ करता था वहीं पर ही उसकी मूर्ति स्थापित की गई है। इसकी भी नाक किसी ने तोड़ दी है। जहां मूर्ति लगी है उसके ठीक सामने लमनी का वन जांच नाका है भी है जहां चौबीसों घंटे वन कर्मियों की तैनाती रहती है। इसके बाद भी किसी का ध्यान इस तरफ नहीं जाना लापरवाही ही मानी जाएगी। किसने तोड़ा क्यो ऐसा हरकत किया गया ये जाँच का विषय है। प्रोफेसर पीडी खेड़ा की मूर्ति को खंडित कर दिए जाते की सूचना पुलिस और वन विभाग के अफसरों को स्थानीय निवासियों ने दी। इसके बाद अब सक्रियता दिखाने की बात कही जा रही है।

ज्ञात हो कि सन 1928 में प्रो खेड़ा का जन्म लाहौर में हुआ। देश के बंटवारे के वक्त वह पाकिस्तान से भारत आए थे। दिल्ली में रहकर पढ़ाई कि बाद में विश्वविद्यालय में प्रोफेसर बने। एनसीआरटीई में भी उन्होंने काम किया। वर्ष 1983 में दिल्ली यूनिवर्सिटी के समाजशास्त्र विभाग के छात्रों के एक दल को लेकर अचानकमार के घने जंगलों में बैगा आदिवासियों पर अध्ययन करने आए थे और यहीं के होकर रह गए। यहां आदिवासियों की हालत देखकर यहीं रूकने का मन बनाया। साथ आर छात्रों को एक सप्ताह की छुट्टी की अर्जी देकर लौटा दिया। कुछ समय बाद प्रो खेड़ा ने खुद को इन्हीं जंगलों के नाम कर दिया। अपनी पेंशन के पैसों से यहां उन्होंने स्कूल भी बनवाया यहां खुद वह बच्चों को पढ़ाते थे। 23 सितंबर 2019 को उनकी मौत अपोलो अस्पताल में हुई थी। इसके अगले साल यहां प्रतिमा स्थापित की गई। इसके अनावरण के लिए कई बार कोशिश की गई लेकिन प्रशासन और जनप्रतिनिधियों ने ध्यान नहीं दिया।

लमनी गांव में बनाया आशियाना-लमनी गांव में वह कुटिया बनाकर रहते थे। ध्यान रहे कि ग्राम लमनी में उन्होंने विशेष आदिवासी जनजाति बैगा लोगों के लिए स्वास्थ्य, शिक्षा और सामाजिक स्तर को बढ़ाने का काम किया। प्रो. खेड़ा ने बिलासपुर जिले में अचानकमार सेंचुरी एरिया के घने जंगलों में जिंदगी बिताई। यहां के लमनी गांव में वह कुटिया बनाकर रहते थे। 1995 से प्राथमिक शाला शुरू की और इसी के साथ उन्होंने आदिवासियों के दिल में जगह बनाई। स्कूल में वो खुद पढ़ाने का काम करते थे और पढ़े लिखे युवाओं को भी मौका देते थे। वो अपने पेंशन की पूरी रकम 1992 से बैगा आदिवासियों के कल्याण के लिए मरते दम तक करते रहे। बैगा आदिवासियों के बच्चों की बढ़ती संख्या उच्च अध्यापन में मान्यता की तकनीकी आवश्यकता को देखते हुए उन्होंने 2014 में अभ्यारण्य शिक्षण समिति का गठन किया और स्कूल को ग्राम शिवतराई में आदिमजाति कल्याण विभाग की संचालित शाला से संबद्ध करा दिया।
एसडीएम अजय कुमार शतरंज ने मौके पर पहुंचकर जांच कराने और प्रतिमा को ठीक कराने की बात कही है।