मुंगेली

संतान की लंबी उम्र के लिए ने महिलाओं ने रखा निर्जला व्रत…

हरिपथमुंगेली(फलित जांगणे) 5 सितंबर रोहारा खुर्द में संतान की लंबी उम्र के लिए महिलाओं ने कमरछठ का व्रत रखा। कमर छठ की तैयारी करने सुबह से ही बाजार में काफी भीड़ रही। छह तरह की भाजियां, पसहर चावल, काशी के फूल, महुआ के पत्ते, धान की लाई सहित पूजा की आवश्यक पूजन की सामाग्री भगवान शिव को अर्पित कर संतान के दीर्घायु के निर्जला व्रत रखें।

छत्तीसगढ़ के प्रमुख त्योहारों में से एक कमरछठ को हलछठ या हलषष्ठी भी कहा जाता है। व्रत को करने वाली महिलाएं निर्जला रहकर शिव-पार्वती की पूजा करती हैं। सगरी बनाकर सारी रस्में निभाया।

कमरछठ की पूजा के लिए महिलाओं ने गली-मोह्ल्ले में मिलकर प्रतीकस्वरूप दो सगरी (तालाब) के साथ मिट्टी की नाव बनाई और फूल-पत्तों से सगरी को सजाकर वहां महादेव व पार्वती की पूजा की। दिनभर निर्जला रहकर शाम को सूर्य डूबने के बाद व्रत खोलेंगी। पंडित कोमल, अंजू, बिजीया, पायल, राधिका, ने बताया कि यह व्रत संतान प्राप्ति के लिए भी किया जाता है। बिहार में जिस तरह छठ मईया की पूजा होती है। उसी तरह छत्तीसगढ़ में कमरछठ का महत्व है। जो संतान प्राप्ति और संतान की लंबी उम्र के लिए किया जाता है।

छत्तीसगढ़ 6 तरह की भाजियों के लिए प्रसिद्ध छत्तीसगढ़ में कमरछठ में भी भाजियों का अपना महत्व है। इस व्रत में छह तरह की ऐसी भाजियों का उपयोग किया जाता है। जिसमें हल का उपयोग ना किया हो। बाजार में भी लोग अलग-अलग तरह की छह भाजियां लेकर पहुंंचे। जिसमें चरोटा भाजी, खट्टा भाजी, चेंच भाजी, मुनगा भाजी, कुम्हड़ा भाजी, लाल भाजी, चौलाई भाजी शामिल है।

इस दिन संतान की लंबी उम्र की कामना हेतु महिलाओं द्वारा किये जाने वाले हलछठ(हलषष्ठी) व्रत एवं भगवान श्री कृष्ण के भाई दाऊ की जयंती के रूप में मनाया जाता है। इस दिन को बलराम जयंती भी कहा जाता है।

यह पर्व माताओं का संतान के लिए किया जाने वाला, छत्तीसगढ़ राज्य की अनूठी संस्कृति का एक ऐसा पर्व है जिसे हर वर्ग हर जाति मे बहूत ही सद्भाव से मनाया जाता है। हलषष्ठी को हलछठ, कमरछठ या खमरछठ भी कहा जाता है।

यह पर्व भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की षष्ठी तिथि को मनाया जाता है। संतान प्राप्ति व उनके दीर्घायू सुखमय जीवन की कामना रखकर माताएँ इस व्रत को रखती है।

इस दिन माताएँ सूबह से ही महुआ पेड़ की डाली का दातून कर, स्नान कर व्रत धारण करती है। भैसी के दुध की चाय पीती है। तथा दोपहर के बाद घर के आँगन में, मंदिर-देवालय या गाँव के चौपाल आदि मे बनावटी तालाब (सगरी) बनाकर। उसमें जल भरते हैं। सगरी का जल, जीवन का प्रतीक है। तालाब के पार में बेर, पलाश, गूलर आदि पेड़ों की टहनियों तथा काशी के फूल को लगाकर सजाते हैं। सामने एक चौकी या पाटे पर गौरी-गणेश, कलश रखकर हलषष्ठी देवी की मुर्ती(भैसी के घी में सिन्दुर से मुर्ती बनाकर) उनकी पूजा करते हैं। साड़ी आदि सुहाग की सामग्री भी चढ़ाते हैं। तथा हलषष्ठी माता के छः कहानी को कथा के रूप मे श्रवण करते हैं।

इस पूजन की सामग्री में पसहर चावल(बिना हल जुते हुए जमीन से उगा हुआ धान का चावल), महुआ के पत्ते, धान की लाई, भैसी के दुध – दही व घी आदि रखते हैं। बच्चों के खिलौनों जैसे-भौरा, बाटी आदि भी रखा जाता है। बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों मे गेडी (हरियाली त्योहार के दिन बच्चों के चढ़ने के लिए बनाया जाता है) को भी सगरी मे रखकर पूजा करते है क्योंकि गेडी का स्वरूप पूर्णतः हल से मिलता जुलता है तथा बच्चों के ही उपयोग का है। इस दौरान संपत्ति, सत्यवती, तुलसी, नर्मदा, फुलमाता, कांति, सरस्वती, चित्रलेखा, श्यामबाई, गीता, उपस्थित रहे।

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